अंधेरे में मकड़ी के जाले पड़ेंगे
रंग जब तक दिलों के ये काले पड़ेंगे
जबानों में तब तक ही ताले पड़ेंगे
अगर रखना है तुमको रिश्ता को कायम
खाने जहर के निवाले पड़ेंगे
दिया रात को कैसे रोशन करेगा
अंधेरे में मकड़ी के जाले पड़ेंगे
खिलाओगे जग को यहां भोज कैसे
अगर खुद को रोटी के लाले पड़ेंगे
मंजिल को ऐसे ही पाओगे कैसे
पैरों में जब तक ना छाले पड़ेंगे
अपने पराए में मतभेद होंगे
तो जीवन में गम के ही नाले पड़ेंगे
यही रीत सदियों से है इस जहां की
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Saturday, 27 October 2018
ग़ज़ल " अंधेरे में मकड़ी के जाले पड़ेंगे" ( राधा तिवारी "राधेगोपाल " )
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