Monday, 22 July 2019

गजल, " माँ " (राधा तिवारी " राधेगोपाल " )







माँ
 जल रहा है तन बदन लग रही ज्यों आग है
 रोशनी से है भरा घर का हर इक भाग है

 ऐ रवि आकर के देखो रात में भी तुम कभी
 चांद पर भी लोग कहते हैं कि काला दाग है

 रिश्ते नातों को संभालो टूटते ही जा रहे
 डस रहे हैं अब सभी को संबंध के ही नाग हैं 

घोर कलयुग में कहाँ पर हंस चुगते मोतियां
 कोयल के भी घोंसले में दिख रहे अब काग है

 अन्न जल और फूल फल से ये धरा आबाद है
 खा रहे हैं जानवर अब घास के संग साथग हैं

 माँ से सुनकर लोरियाँ सब यहाँ बढ़ते रहे
 भूलते अब बालपन के राग और अनुराग हैं 

कह रही राधे की जीवन है बहुत ही कीमती
 गांठ से जो जुड़ ना पाए यह वही तो ताग है


 

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (24-07-2019) को "नदारत है बारिश" (चर्चा अंक- 3406) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete