Saturday 5 May 2018

ग़ज़ल "मिला नहीं है ठौर ठिकाना" (राधेगोपाल)

कलम देखकर मचल जाय जब दिल दीवाना
तब उठता है मन में सुन्दर एक तराना

जग के झंझावातों में तो उमर ढल गयी
किन्तु अभी भी मिला नहीं है ठौर ठिकाना

कहने को तो सारे सम्बन्धी अपने हैं
किन्तु न आता कंगाली में गले लगाना

साहूकार निर्धन के धन लूट-लूट कर
पापी भरता जाता अपना रोज खजाना

सच को लिखना राधे की मजबूरी है
चाहे सारा जग ही बन जाये बेगाना

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