दो बालक की सोच
हाथ तुम्हारे सौपदी ,विद्यालय की डोर । अब विद्यालय जाएगा, सम उन्नति की ओर।। देती है शुभकामना, यह राध्े गोपाल। विद्यालय की डोर को, रखना सदा संभाल।। अच्छे कर्मों से सदा, मिलता है सम्मान। जो करता है श्रम यहां, उसको मिलता मान।। कर्तव्यों से भागते, हरदम कायर लोग। जीवन में होता सदा, दुख सुख का सयोग।। जब बच्चे होते बड़े, मानो उनको मित्रा । सदा साथ उनके रहो, ज्यों फूलों संग इत्रा।। गृह-कार्य को कीजिए, आकर अपने धाम। खेलकूद भी कीजिए, जब हो जाए शाम।। पुस्तक में दिखती नहीं, गाली और गलोच। कैसे बदली फिर यहाँ, बच्चों की है सोच ।। दो बालक की सोच भी, होती है विपरीत। एक बना गंभीर है, दूजा सबका मीत ।। |
Monday, 6 May 2019
दोहे, "दो बालक की सोच" (राधा तिवारी "राधेगोपाल ")
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (07-05-2019) को "पत्थर के रसगुल्ले" (चर्चा अंक-3328) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'