Saturday, 30 May 2020

गीत , चलता जाता है मजदूर " ( राधा तिवारी "राधेगोपाल " ),


 चलता जाता है मजदूर



पथरीली पटरी को चुनता 
सुलभ सड़क को छोड़ रहा है
काम नहीं अब करना उसको 
रुख वो घर को मोड़ रहा 
तन मन से वह थका हुआ है 
लौट रहा होकर मजबूर
चलता जाता है मजदूर।।

कदम द्वार की चौखट तक भी 
अब वह नहीं रख पाता है 
चलते-चलते थका मुसाफिर 
घर आकर मर जाता है 
भूखा ही वह लौट रहा है 
देखो तो होकर मजबूर 
चलता जाता है मजदूर।।

सोशल डिस्टेंस के कारण 
वह तो पैदल चलता है 
अपने ही घर में अब मानव 
अपनों को ही खलता है 
कंटीली झाड़ी में तो अब 
वो है चलने को मजबूर 
चलता जाता है मजदूर।।

कहता है यह रोग जगत में 
हाथ मिलाना पाप हुआ 
खोल मुँह को बातें करना 
भी अब तो अभिशाप हुआ
जूझ रहा इस रोग से अब तो
सारा जग होकर मजबूर
चलता जाता है मजदूर।।

कहीं पड़ी लाठी व डंडे 
सीमा पर भी वार हुआ 
कभी बाँध बच्चे को काँधे 
पापा भी लाचार हुआ 
जंगल जंगल चलता जाता 
देखो वह होकर मजबूर
चलता जाता है मजदूर।।

तनिक नहीं विश्राम कर रहा 
चाहे थक कर हो वह चूर
जीने की है उसे लालसा 
वो भी अब होता मगरूर
बढ़ता जाता है वह देखो
 हँसता हँसता हो मजबूर
चलता जाता है मजदूर।।

वाहन उसको नहीं चाहिए 
चाहे पैर पे छाले हो
अपने घर को लौट रहे 
हैं 
छीन गए आज निवाले हो
अपनी धुन में चलता जाता 
फिर भी हो करके मजबूर
चलता जाता है मजदूर।

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