Saturday, 24 November 2018

ग़ज़ल, "शब्द में सिमट रही" (राधा तिवारी 'राधेगोपाल')

भूख से तड़प रहे हैं हड्डियाँ भी दिख रही
हाट में गरीब की रोटियाँ भी बिक रही

था गुमान बाप को, बेटी घर चलाएगी
आबरू को बेचकर  बेटियाँ हैं टिक रही

भाइयों के हाथ में राखी बाँधती थी जो
भाइयों के सामने ही आन-बा मिट रही

मनचलों के राज में नजरबन्द बेटियाँ
मौन धृतराष्ट्र वहाँ, लाज जहाँ लुट रही

देख कर ऐसा चमन हो रहा मलाल है
राधे की तो शायरी शब्द में  सिमट रही

No comments:

Post a Comment