दीप
दीप नन्हा सा धरा पर जल रहा है
उजियार उसमें दो जहां का पल रहा है
नेकिया सब काम आएंगी तुम्हारी
बदकिस्मती का दौर देखो चल रहा है
रिश्ते नातों की जहाँ थी डोर पक्की
भाई ही भाई को अब तो छल रहा है
झूठ अब तो सिर पे चढ़कर बोलता है
सत्य अब तो है सभी को खल रहा है
श्रवण बनकरके रहो तुम इस धरा पर
याद अब राधे को अपना कल रहा है
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यथार्थ को व्यक्त करती
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया रचना....
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (25-03-2019) को "सबके मन में भेद" (चर्चा अंक-3284) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'