मरघट
कल तक चाहे था खड़ा , अब सोया इंसान।
जीवन भर अपमान था , मरने पर सम्मान।।
जीवन की तो चाह थी, ना तन में परिधान ।
लेकिन जीने के लिए ,थे बहुत अरमान।।
मरघट पर जाकर कभी, करना जरा विचार।
जन्म मरण के फेर में, हरदम था लाचार।।
जो अपनों की बात का , करते हैं सम्मान।
उनका तो होता नहीं , कहीं कभी अपमान ।।
मीठी वाणी से बनी ,कोयल की पहचान ।
मानव मीठे बोल से, पाता है सम्मान ।।
तलवारों के घाव तो, भर जाते हैं मित्र ।
कड़वी वाणी से नहीं, अच्छा बनें चरित्र।।
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Tuesday, 26 March 2019
दोहे, " मरघट " ( राधा तिवारी "राधेगोपाल " )
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