आदमी ही आदमी को
आदमी ही आदमी को आज छलता जा रहा।
हर समय भूतल तवा सा आज जलता जा रहा।।
नेकियां अब तो सभी फरेब बनती जा रही ।
भाई ही भाई को अब तो रोज खलता जा रहा ।।
स्वार्थ के
परिवेश में सब सेकते हैं रोटियाँ ।
आस्तीनों में सभी की सांप पलता जा रहा ।।
आज तो सीमाओं पर गद्दार पैदा हो रहे।
देख लो अब इस जहाँ में दौर चलता जा रहा।।
देखकर राधे वतन में इस तरह की सूरतें।
आज मक्कारों को भोला वतन फलता जा रहा।।
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