वर्षा
कल तक थी वर्षा बनी , फसलों को वरदान ।
आज हवा के संग में, चौपट करती धान।।
खड़ी हुई थी शान से, फसल खेत के बीच ।
आकर उसे गिरा गई, बारिश कर के कीच।।
पड़ी फसल को देखकर, चेहरे हुए मलीन।
कल जो थे हर्ष में ,आज हुए गमगीन।।
सोचा था भर जाएंगे, घर के अब भंडार।
पर वर्षा से बह गए ,लोगों के घर द्वार।।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (11-09-2019) को "मजहब की बुनियाद" (चर्चा अंक- 3455) पर भी होगी। --
ReplyDeleteसूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'