Sunday, 29 December 2019

कुण्डलियाँ, " जलकर काया भस्म " (राधा तिवारी " राधेगोपाल " )



 जलकर काया भस्म
 जलकर काया भस्म है, थी माटी की देह |
जीवित रहने के लिए, खाते हैं अवलेह |
खाते हैं अवलेह, पी रहे हैं गंगाजल |
खबर नहीं है यार, अरे क्या होगा प्रतिफल |
कह राधे गोपाल, रहो आपस में मिलकर |
माटी की है देह, भस्म हो जाए जलकर ||

: काम, क्रोध, मद, लोभ से, रहना हरदम दूर |
करके अच्छे काम को, होते सब मशहूर |
होते सब मशहूर, कभी नफरत मत पालो |
बांटो हरपल प्यार, फूट को कभी न डालो |
कह राधे गोपाल, रहो तुम सदा बोध में |
हो जाता नुकसान, हमेशा काम-क्रोध में ||

: मात-पिता के सामने, करो न ऊँची बात |
अपनी बातों से कभी, देना मत आघात |
देना मत आघात, वही हैं मीत घनेरे |
बनकर के मजदूर, बनाए सुंदर डेरे |
कह राधे गोपाल, जिंदगी दुखी बिता के |
देते हैं आकाश, सितारे मात-पिता के ||

1 comment:

  1. अति सुन्दर लिखा जी आपने सराहनीय है ये मैं दिल से आपके शब्दों की प्रशंशा जनक बधाई देता हूँ

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