प्रीत की चदरिया
शीशा समझ के दिल को अब सब ही तोड़ते हैं
नींबू के जैसे रिश्ते अब सब निचोड़ते हैं
आना कभी धरा पर इंसा को रचने वाले
देखो तो आकर कैसे सब मुंह मोड़ते हैं
जब था बनाया तुमने इंसा को एक जैसा
मजहब बना कर अब वो दीवार जोड़ते हैं
संसार में नहीं है कोई हिंदू सिख इसाई
अब प्रीत की चदरिया सब लोग ओढते हैं
गीतो ग़ज़ल में राधे समझा कर सबको हारी
मिट्टी की हांडी अब तो सब लोग फोड़ते हैं
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